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एक प्रसिद्ध चित्रकार ने अपने पुत्र को भी चित्रकला सिखाई। उसका पुत्र इस कला में जल्द ही पारंगत हो गया, क्योंकि वह भी अपने पिता के समान ही परिश्रमी और कल्पनाशील था। जल्दी ही वह सुंदर चित्र बनाने लगा। फिर भी चित्रकार पिता अपने पुत्र द्वारा बनाए गए चित्रों में कोई न कोई त्रुटि जरूर निकाला करता था।


वह कभी खुले हृदय से अपने पुत्र की प्रशंसा नहीं करता बल्कि कई बार तो डांट भी देता था। लेकिन दूसरे लोग चित्रकार के बेटे के चित्रों की खूब सराहना करते थे। उसके बनाए हुए चित्रों की मांग बढ़ने लगी। फिर भी पिता के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया। एक दिन पुत्र ने एक आकर्षक चित्र बनाया और अपने एक मित्र द्वारा उसे अपने पिता के पास भिजवाया। पिता ने सोचा कि यह चित्र उसी मित्र का बनाया हुआ है। उसने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।

तभी वहां एक कोने में छिपकर बैठा पुत्र निकल आया और बोला, 'पिताजी, वास्तव में यह चित्र मैंने बनाया है। अंतत: मैंने वैसा चित्र बना ही दिया जिसमें आप कोई कमी नहीं निकाल सके।'
चित्रकार पिता ने कहा, 'बेटा, एक बात गांठ बांध लो। अभिमान उन्नति के सभी मार्ग बंद कर देता है। आज तक मैंने तुम्हारी प्रशंसा नहीं की, सदा तुम्हारे चित्रों में कमियां निकालता रहा। इसलिए तुम आज तक अच्छे चित्र बनाते रहे। अगर मैं कह देता कि तुमने बहुत अच्छा चित्र बनाया है, तो शायद तुम चित्र बनाने में उतने जागरूक नहीं रहते। तुम्हें लगता कि तुम पूर्णता को प्राप्त कर चुके हो, जबकि कला के क्षेत्र में पूर्णता की कोई सीमा ही नहीं होती है। मैं तो इस उम्र में भी अपने को पूर्ण नहीं मानता। तुम्हारे आज के बर्ताव से तुम्हारी ही हानि होगी। इसलिए भविष्य में सावधान रहना।’ यह सुनकर पुत्र लज्जित हो गया। उसने पिता के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी।

Source by NBT


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