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बहुत पुरानी बात है। एक राजा था। उसके पास एक दिन एक संत आए। उन्होंने कई विषयों पर चर्चा की। राजा और संत में कई प्रश्नों पर खुलकर बहस भी हुई। अचानक बातों ही बातों में संत ने अधिकार की रोटी की चर्चा की। राजा ने इसके बारे में विस्तार से जानना चाहा तो संत ने उसे एक बुढ़िया का पता दिया और कहा कि वही उसे इसकी सही जानकारी दे सकती है।

राजा तत्काल बुढ़िया की तलाश में राजमहल से निकल पड़ा। काफी देर ढूंढने के बाद वह बुढ़िया राजा को मिल गई। राजा बहुत खुश हुआ। वह दौड़ कर उसकी झोपड़ी में जा पहुंचा, जहां बैठी वह चरखा कात रही थी। राजा उसके सामने खड़ा हो गया और बोला, 'माई , मैं एक विचित्र सवाल का जवाब खोज रहा हूं, क्या आप मेरी मदद करेंगी?'

बुढ़िया ने एकटक राजा को देखा फिर हां कर दी। राजा ने पूछा, 'माई, अधिकार की रोटी क्या होती है? मैं आज आप से वही लेने आया हूं।' बुढ़िया ने राजा को पहचान कर कहा, 'मेरे पास एक रोटी है। उसमें आधी अधिकार की है और आधी बिना अधिकार की।'

राजा की समझ में कुछ नहीं आया। उसने आश्चर्य से बुढ़िया की ओर देखा और कहा, 'यह आप क्या कह रही हैं। साफ-साफ बताएं।' बुढ़िया बोली, 'कल मैं यहां बैठी चरखा कात रही थी। दिन ढल गया था। अंधेरा फैल गया था। तभी सड़क पर एक जलूस आया। उसमें मशालें जल रही थीं। मैं अपना चिराग न जलाकर आधी सूत उन मशालों की रोशनी में कातती रही।

आधी पहले कात चुकी थी। उस सूत को बेच कर आटा खरीद लाई। आटे की रोटी बनाई। इस तरह आधी रोटी मेरे अधिकार की है और आधी बिना अधिकार की। उस पर मेरा नहीं, जुलूस वालों का अधिकार है।' बुढ़िया की बात सुनकर राजा चकित रह गया। उसकी धर्म-बुद्धि पर उसका सिर झुक गया।

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