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एक राजा को उसके कुलगुरु समय-समय पर नीति और ज्ञान की बातें समझाते रहते थे। युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद एक बार राजा ने गौरव व अभिमान से भर कर कुलगुरु से कहा, 'गुरुदेव, आपकी अनुकंपा से मैं अब चक्रवर्ती सम्राट हो गया हूं। अब मैं हजारों-लाखों लोगों का रक्षक और प्रजापालक हूं। मेरे कंधों पर उन सब की जिम्मेदारी है।' कुलगुरु ने अनुमान लगा लिया कि शायद मेरे यजमान को राजा होने का अभिमान हो गया है। यह अभिमान उसकी संप्रभुता को हानि पहुंचा सकता है। इस अभिमान को तोड़ने के लिए कुलगुरु ने एक युक्ति सोची।

 



शाम को राजा के साथ भ्रमण करते हुए कुलगुरु ने अचानक राजा को एक बड़ा सा पत्थर दिखा कर कहा, 'वत्स! जरा इस पत्थर को तोड़ कर तो देखो।' आज्ञाकारी राजा ने अत्यंत नम्र भाव से अपने बल से वह पत्थर तोड़ डाला। लेकिन यह क्या! पत्थर के बीच में बैठे एक जीवित मेंढक को एक पतंगा मुंह में दबाए देख कर राजा दंग रह गया। कुलगुरु ने राजा से पूछा, 'पत्थर के बीच बैठे इस मेंढक को कौन हवा-पानी और खुराक दे रहा है? इसका पालक कौन है? कहीं इसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी तुम्हारे ही कंधों पर तो नहीं आ पड़ी है?'

राजा को अपने कुलगुरु के प्रश्न का आशय समझ में आ गया। वह इस घटना से पानी-पानी हो कर कुलगुरु के आगे नतमस्तक हो गया। तब कुलगुरु ने कहा, 'चाहे वह तुम्हारे राज्य की प्रजा हो या दूसरे प्राणी, पालक तो सबका एक ही है- परमपिता परमेश्वर। हम-तुम भी उसी की प्रजा हैं, उसी की कृपा से हमें अन्न और जल प्राप्त होता है। राजा के रूप में तुम उसी के कार्यों को अंजाम देते हो। हम-तुम माध्यम हैं, निमित्त मात्र हैं, पालनकर्ता परमात्मा ही है। हमारे भीतर पालनकर्ता होने का अभिमान कभी नहीं आना चाहिए।'

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