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एक गांव के मठ में एक बाबा रहते थे। आसपास के गांवों से लोग सत्संग के लिए उनके पास पहुंचते रहते थे। बाबा सबसे प्रायः एक ही बात जोर देकर कहते थे कि क्रोध मत करो। वह हर समस्या का एक ही समाधान बतलाते थे कि क्रोध मत करो। फिर भी उस इलाके में लोगों के बीच लड़ाई-झगड़े कम नहीं होते थे। बाबा की सीख के एकदम विपरीत उस गांव के लोग बात-बात पर झगड़ते थे।

एक दिन एक संत वहां से गुजरे। संत को बाबा के बारे में पता चला तो उत्सुकतावश वह भी बाबा से मिलने उनके मठ चले गए। संत आम भक्तों के बीच ही बैठे थे। उन्होंने अपना परिचय नहीं दिया, एक सामान्य श्रद्धालु की तरह बाबा से अनुरोध किया कि जीवन में हमेशा प्रसन्न रहने का मंत्र बताएं। बाबा ने कहा कि यदि हमेशा प्रसन्न रहना चाहते हो तो कभी किसी पर क्रोध मत करना। संत ने बाबा से पूछा, 'आपने क्या कहा मुझे ठीक से सुनाई नहीं पड़ा।' बाबा ने थोड़ा जोर से कहा, 'गुस्सा मत करना।' संत ने फिर कहा, 'बाबा थोड़ा ठीक से समझाते हुए एक बार और बतलाइए कि क्या नहीं करना है?'
बाबा ने क्रोधपूर्ण लहजे में कहा, 'अरे मूर्ख क्रोध मत करना।'
संत ने कहा कि उसे ठीक से सुनाई नहीं दिया, अतः एक बार फिर से बतला दीजिए। इस बार बाबा ने पास में रखा डंडा उठा कर संत के सिर पर दे मारा। अब संत ने बाबा से पूछा, 'बाबाजी यदि क्रोध न करना ही जीवन में हमेशा प्रसन्न रहने का मंत्र है तो आपने मुझ पर इतना क्रोध क्यों किया?' इस पर बाबा लज्जित होकर संत से क्षमायाचना करने लगे। संत ने शांत स्वर में कहा, 'एक हिंसक व्यक्ति अहिंसा का पाठ नहीं पढ़ा सकता और एक क्रोधी व्यक्ति दूसरों में अक्रोध व सहिष्णुता का भाव उत्पन्न नहीं कर सकता। जरूरी है कि पहले हम स्वयं क्रोध से मुक्त होने का प्रयास करें।'
Source by NBT

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