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लाहौर कॉलेज का वह प्रतिभावान छात्र फारसी के साथ स्नातक परीक्षा देना चाहता था। किसी व्यक्ति ने उसे ताना मारा कि, 'तुम ब्राह्मण के बेटे हो, तुम्हें संस्कृत लेकर स्नातक परीक्षा देनी चाहिए।'

समय कम था, छात्र ने संस्कृत पढ़ी नहीं थी। छात्र ने विचार किया कि वह संस्कृत लेकर ही परीक्षा उत्तीर्ण करेगा। उसने संस्कृत अध्यापक को लेकर विचार बनाया। अध्यापक ने कहा मैं तुम्हें संस्कृत पढ़ाने की चेष्टा करूंगा पर यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम कम समय में संस्कृत कैसे सीखोगे।

छात्र ने कहा, 'गुरुवर! आपने शिक्षा देना स्वीकार कर लिया, मैं धन्य हो गया। मेरा प्रयास यही रहेगा कि आपको अपने निर्णय पर पछताना न पड़े।'

और सचमुच उस छात्र ने प्रथम श्रेणी से परीक्षा उत्तीर्ण की। यही मेघावी छात्र आगे चलकर स्वामी तीर्थराम नाम से विश्व विख्यात हुआ। यह सब कुछ उसकी सच्ची लगन के चलते हुआ।

स्वामी रामतीर्थ (जन्म 22 अक्टूबर 1873 मृत्यु 27 अक्टूबर 1906) वेदान्त दर्शन के अनुयायी भारतीय सन्यासी थे। स्वामी रामतीर्थ शंकराचार्य के अद्वैतवाद के समर्थक थे, पर उसकी सिद्धि के लिये उन्होंने स्वानुभव को ही महत्वपूर्ण माना है। वे विकासवाद के समर्थक थे।








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