
हिंदी साहित्य के प्रथम इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल उन दिनों बनारस में रहते थे। और वह नागरी प्रचारिणी सभा में हिंदी विश्वकोष का काम देखा करते थे और उन्हें वेतन के रूप में पच्चीस रुपय मिला करते थे।
शुक्लजी के एक बड़े ही प्रभावशाली मित्र थे, जिनकी पहुंच राजा-महाराजाओं तक थी। तो उन्होंने शुक्लजी को अलवर के महाराजा के यहां काम पर लगवा दिया। वेतन तय हुआ चौदह सौ रुपय माह। उस समय चौदह सौ रुपय की बहुत कीमत थी। वेतन के अनुरूप शुक्लजी ठाठ-बाठ भी से रहने लगे।
अलवर पहुंचे अभी उन्हें तीन दिन ही हुए थे कि आचार्य शुक्ल ऊब से गए। उन्होंने देखा कि सभी राज कर्मचारी राजा साहब की चाटुकारिता में ही लगे रहते थे। वहां बने रहने के लिए यह सब जरूरी भी था।
शुक्ल जी को यह सब कुछ बिल्कुल भी पसंद नहीं था। इस तरह नौकरी के चौथे दिन बिना किसी को बताए वह अलवर से सीधे चले आए, बनारस और फिर से पच्चीस रुपए की माह की नौकरी करने लगे।

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